Friday, May 14, 2010

फर्क सस्ते और महंगे का

-सच्चिदानंद जोशी-
बचपन में एक बार अपने पिताजी से पूछा था कि ‘‘हम यूनिफार्म क्यों पहनते है?’’ तो उनका जवाब था ‘समानता के लिये’। उन्होंने आगे समझाते हुए कहा था, ‘‘यूनिफार्म पहनते ही हमारे सारे भेदभाव मिट जाते है और हम सब मिलजुल कर एक टीम की तरह, एक ईकाई की तरह काम करने लग जाते है।’’ तभी से यूनिफार्म के प्रति मेरा आकर्षण बना हुआ है, फिर चाहे वह स्कूल की यूनिफार्म हो या खेल के मैदान की, फौज की यूनिफार्म हो या फिर किसी बैंड पार्टी या नाट्य मंडली की।
बचपन से लेकर आज तक यही भ्रम पाले हुए था कि यूनिफार्म हमारे बीच के सारे भेद भूलाकर हमें एक ईकाई के रूप में पहचान दिलाती है। लेकिन उस दिन जब मैंने आय.पी.एल. 3 का फाइनल मैच देखा तो मेरा यह भ्रम टूट गया। मेरा ही क्यों मुझ जैसे उन तमाम लोगों का भ्रम टूट गया होगा जिन्होंने उस क्षण वह मैच देखा होगा जिसका मैं वर्णन करने जा रहा हॅू।
मुम्बई इंडियन्स बैंटिग कर रहे थे और उनकी हालत पतली थी। जीत के लिये उन्हें 12 के औसत से भी अधिक से रन चाहिये थे, न उनके पास अधिक विकेट बचे थे न गेंदे। क्रीज पर थे टूर्नामेंट के सबसे महंगे खिलाड़ी कैरोन पोलार्ड और अम्बाती रायडू। यहाँ पर बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि पोलार्ड के लिये लगाई गई बोलियों की चर्चा तो आय. पी. एल 3 शुरू होने से लेकर खत्म होने तक लगातार बनी रही पर शायद ही किसी को पता होगा कि उसी टीम का खिलाड़ी अम्बाती रायडू कितने में ‘बिका’। यह भी बता देना उचित होगा कि तुलनात्मक रूप से ‘फोकटिये’ रायडू ने अपनी कीमत की परवाह किये बगैर टूर्नामेंट में अब तक लगातार अच्छा प्रदर्शन किया था।
पोलार्ड ने क्रीज पर आते ही अपनी धाक जमाई और पहले ओवर में 22 रन धुन डाले। गेंद की बेरहमी से पिटाई करने के बाद पोलार्ड के चेहरे पर भाव देखने लायक थे, मानो कह रहा हो ‘‘देखा सबसे महंगे खिलाड़ी का जलवा’’। इसके बाद अगले ओवर की आखरी गेंद पर पोलार्ड ने शाट मारा। उस पर आसानी से दो रन हो सकते थे। बेचारा रायडू दूसरे रन के लिये दौड़ा भी पर पोलार्ड ने उसे वापिस भेज दिया यह जतलाने के लिये कि अगला ओवर भी वही खेलना चाहता है। ठीक भी था वह सबसे महंगा खिलाड़ी जो ठहरा, उसी की चलनी थी।
अगले ओवर की पहली गेंद पर पोलार्ड ने शाट मारा जिस पर सिर्फ एक रन ही मिल सकता था। इससे पोलार्ड को दूसरे छोर पर जाना पड़ता। लेकिन पोलार्ड महाशय दूसरे रन के लिये दौडे़ और वापिस बल्लेबाजी वाले छोर पर पहॅुच गये। वहां बेचारा रायडू हतप्रभ खड़ा पोलार्ड को अपनी ओर आता देख रहा था। इसके पहले कि वह कुछ सोच पाता पोलार्ड ने प्रायः उसे धक्का देते हुए दूसरे छोर पर रन आऊट होने के लिये भेज दिया। रायडू मरता क्या न करता बेचारा दौड़ पड़ा, अपना ‘‘सस्ता’’ विकेट बलिदान करने और पोलार्ड का ‘‘महंगा’’ विकेट बचाने। अपनी कीमत के मद में चूर पोलार्ड ने पीछे मुड़कर रायडू का हश्र देखना या उसे सांत्वना देना भी उचित नहीं समझा।
मेरा बचपन से युनिफार्म के लिये पल रहा विश्वास टूट कर चूर चूर हो गया। मेरी समझ में आ गया कि युनिफार्म पहनने से सारे भेद नहीं मिट पाते। कुछ भेद तो रह ही जाते है। खासकर तब जब कि इन खिलाड़ियों की युनिफार्म का बाजार लगा हो और सस्ते महंगे का सौदा हो रहा हो। बेचारे रायडू के खांम खाँ आऊट हो जाने पर किसी को सहानुभूति नहीं थी, सभी इस बात पर प्रसन्न थे कि ‘‘महंगा’’ पोलार्ड अभी क्रीज पर है।
आय. पी. एल. खेल नहीं है वह तो बाजार है, जहाँ खिलाड़ी कठपुतली बनकर अपने मालिकों और बोली लगाने वालो की तर्ज पर, गुलामों की तरह नाचते हैं। यही हाल बेचारे कामेंटेªटरो का भी है, जो ज्यादा कीमत पर खरीदे गये विज्ञापन के भोंपू है, जिन्हें हर चैके, छक्के या विकेट गिरने पर प्रायोजकों का नाम किसी वेद मंत्र की तरह जपना पड़ता है। तोतो की तरह बैठे बेचारे कामेंटेªटर क्या कहते इस हरकत पर। वे रायडू की तारीफ करते हुए कहने लगे कि उसने अपना विकेट पोलार्ड के लिये बलिदान कर दिया। इस सारे वाकये का ऐंटीक्लायमेक्स यह रहा कि पोलार्ड भी उसी ओवर में आऊट हो गया और उसका सुपर हीरो बनकर अपनी टीम को असंभव लगती विजय दिलाने का सपना वहीं धाराशाई हो गया। ‘सस्ता’ खिलाड़ी मुरव्वत कर सकता है, लेकिन गेंद को तो पता नहीं रहता कि कौन सा खिलाड़ी सस्ता है, कौन सा महंगा।
क्रिकेट का बाजार यदि यूँ ही परवान चढ़ता रहा और खिलाड़ी इसी तरह मंडी में बोली लगाकर बिकते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब अम्पायरों पर भी इन महंगे खिलाडियों को नाट आऊट बताकर खेलने देने के लिये दबाव बनाया जायेगा। बचपन में जब क्रिकेट खेला करते थे तो हमारी टीम का नियम था कि जिस बच्चे का बल्ला होगा वह दो बार बैटिंग करेगा और हाँ वह फील्डिंग भी नही करेगा। खेल में कभी कोई ‘दादा’ खिलाड़ी गलती से आऊट हो जाता था तो अम्पायर उस बात को नो बाल करार दे देता था और बालर को तमाचा खाना पड़ता था। कही हम धीरे धीरे उसी परंपरा की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं।

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